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जिसे हम दिल से न अपनाएं वो हमारा सरपंच कैसे



एक गांव था—सीधा-साधा, पर दिल से जुड़ा हुआ। वहां एक आदमी रहता था, नाम था रघुवीर। रघुवीर बचपन से ही अकेलेपन का आदी था। न किसी से मिलना, न किसी के सुख-दुख में भागीदारी। वो मानता था कि दुनिया में अगर कोई जरूरी है तो बस वो खुद।


रघुवीर खेती करता, कमाता, और चुपचाप जीता। गांव वालों ने भी उसे उसके हाल पर छोड़ दिया। कोई न उससे उम्मीद रखता, न शिकायत।


फिर एक दिन किस्मत ने करवट ली। रघुवीर की लॉटरी लग गई—बड़ी रकम की। देखते ही देखते उसकी हालत बदल गई। मिट्टी का घर महल जैसा बन गया, और साइकिल की जगह SUV आ गई।


अब रघुवीर को लगा कि उसे गांव का नेता बनना चाहिए। उसने सरपंच का चुनाव लड़ा। पैसा बहाया, वादे किए, लेकिन लोग तो दिल से वोट करते हैं, जेब देखकर नहीं।


चुनाव में हार गया।


हारते ही रघुवीर ने अपनी ही पार्टी के लोगों को दोष देना शुरू कर दिया—“इन्हीं लोगों ने मुझे हराया है,” वो हर गली में कहता।


वो हार स्वीकार नहीं कर सका, और खुद को गांव से बड़ा समझने लगा।


कुछ महीने बाद उसने सोचा कि एक बड़ा कार्यक्रम करूँगा, जिससे गांव वाले देखें कि मैं किसी से कम नहीं। उसने एक बहुत बड़े आदमी—शहर के नेता—को अपने घर बुलाया।


 लेकिन गांव के कई बड़े गणमान्यजन जो गांव की दशा और दिशा बदलते है उन्होंने तय किया की हमारी इज्जत नहीं करता है है उसके यहाँ हम क्यों जाये।  तो रघुवीर ने सबसे बोलना शुरू किया की ये हमारी पार्टी के आदमी ही नहीं है रघुवीर उन लोगो के लिए कह रहा था जिन्होंने पार्टी को अपने खून पसीने से सींचा था  लेकिन वो नहीं आये।  ना रघुवीर ने अपने घमंड में किसी को मनाया भी नहीं 


लोग कहते,

“जो अपने नहीं, उनके लिए हम क्यों जाएं?”


रघुवीर को गुस्सा आया, उसने बाहर से भीड़ मंगवाई। गाड़ियों में लोग लाए गए, नाच-गाना हुआ, आतिशबाजी भी। कार्यक्रम हुआ, फोटो खिंचे, और मेहमान चले गए।


पर गांव का दिल अब भी उससे दूर था।


लेकिन  वो नहीं समझ पाया कि इज्जत खरीदी नहीं जाती, कमाई जाती है।


अब वो फिर चुनाव की तैयारी में जुट गया, पर गांव वाले मुस्कुरा कर कहते,

“जिसे हम दिल से न अपनाएं, वो हमारा सरपंच कैसे?”


सीख:

पैसा आपको ऊँचाई दे सकता है, पर इज्जत दिल से मिलती है। और दिल जीतने के लिए पहले दूसरों का हिस्सा बनना पड़ता है।